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स्त्री की तरह पाला गया था गोडसे, नथ पहनने के चलते नाम पड़ा नाथूराम

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30 जनवरी, 1948 को दिल्ली के बिड़ला हाउस में शाम 5 बजकर 17 मिनट पर महात्मा गांधी की प्रार्थना सभा होने वाली थी. तभी प्रार्थना स्थल की ओर बढ़ते गांधी के सामने एक शख्स आया और उनपर 9 एमएम की बरेटा पिस्टल से तीन बार फायर किया. ढाई फीट की दूरी से किए गए इन फायर से भारत के राष्ट्रपिता की हत्या कर दी गई.

इसके साथ ही 14 सालों से अलग-अलग जगहों पर किए जा रहे महात्मा गांधी की हत्या के प्रयास आखिरकार स्वतंत्र भारत की राजधानी दिल्ली में सफल हो गए. महात्मा गांधी की हत्या ही भारत की पहली बड़ी राजनीतिक हत्या थी.

कौन था नाथूराम?
गोडसे एक मध्यमवर्गीय चितपावन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ था. चितपावन का मतलब होता है, ‘आग में पवित्र किए गए.’ इनके बारे में कुछ लोग कहते हैं कि ये आर्यों के सीधे वंशज हैं तो कुछ कहते हैं कि ये यहूदियों की एक जाति हैं, जो आगे चलकर ब्राह्मण हुए हैं. वैसे जानने वाली बात यह भी है कि ब्राह्मणों की इसी जाति से गोपाल कृष्ण गोखले और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक भी आते थे.

बहरहाल, नाथूराम के पिता विनायक भारतीय डाकसेवा में एक छोटे पद पर थे. गोडसे के मां-बाप की पहली तीन संतानें पैदा होने के कुछ ही वक्त में चल बसीं थीं. सिर्फ दूसरी संतान, एक बेटी, जी सकी थी. इसके बाद इस दंपत्ति ने एक ज्योतिषी से सलाह ली. ज्योतिषी ने उन्हें एक ‘श्राप’ मिले होने की बात कही और बताया, ‘अपने बेटे को आप तभी बचा पाएंगे, जब उसका लड़की की तरह पालन-पोषण करें.’

नाथूराम के मां-बाप ने इसके बाद कई धार्मिक अनुष्ठान किए और मनौती मानी कि जन्म के बाद वो अपने बेटे की बाईं नाक छिदवाएंगे और उसे नथ पहनाएंगे. इसके बाद 19 मई, 1910 को जन्मे नाथूराम के साथ ऐसा ही किया गया. इसी नथ के चलते उनके बेटे का नाम नाथूराम पड़ा. हालांकि बड़े होने पर उसकी नथ निकाल दी गई. नाथूराम के तीन भाई और दो बहने थीं.

नाथूराम का अंतर्मुखी स्वभाव और हीन भावना

नाथूराम को नथ पहनने और लड़कियों की तरह रखने के चलते उसके बचपन के साथी अक्सर चिढ़ाते रहते थे. इससे वह धीरे-धीरे अकेला होता गया. हालांकि कुछ ही दिनों बाद लोगों ने यह भी कहा कि उसपर कुल देवता आते हैं. ऐसे में पास-पड़ोस में कुछ लोग उसे मूर्ख समझते थे तो कुछ दैवीय शक्तियों वाला. इन दोनों ही वजहों से नाथूराम अंतर्मुखी होता गया.

नाथूराम मराठी माध्यम से पढ़ा और अंग्रेजी उसके लिए बड़ी समस्या थी. वह मैट्रिक की परीक्षा भी नहीं पास कर सका. जिसके चलते उसे नौकरी भी नहीं मिली. कई बार उसे बढ़ईगिरी का काम मिला लेकिन वह उससे खुश नहीं था तो रत्नागिरी चला आया. वहीं उसकी मुलाकात सावरकर से भी हुई.

एक बार नाथूराम हैदराबाद में हिंदुओं के अधिकारों को लेकर एक रैली निकाल रहा था. इसी दौरान उसे गिरफ्तार किया गया. वह एक साल जेल में रहा. जेल से जब वह छूता तो लौटकर पूना आया. इसी दौरान सावरकर एक राष्ट्रीय पार्टी बनाने के लिए प्रयासरत थे, इसमें वे केवल मराठी ब्राह्मणों को शामिल कर रहे थे.

कोर्ट में सुनवाई के दौरान नाथूराम गोडसे, गांधी की हत्या के अन्य आरोपियों के साथ (फाइल फोटो)

1940 में इन्हीं सबके बीच नाथूराम, नारायण डी. आप्टे नाम के आदमी से मिला. जो हिंदू महासभा के लिए काम कर रहा था. दोनों के बीच कई बातों पर असहमति थे लेकिन दोनों ताउम्र बेहतरीन दोस्त रहे. इन दोनों ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं की गिरफ्तारी के बाद सावरकर के विचारों पर बने एक दल को ज्वाइन कर लिया. दल में ज्यादातर पूना के ही लोग थे. यह दल कांग्रेसियों के खिलाफ हिंसक गतिविधियों में भी शामिल रहता था और कहा जाता है कि नाथूराम को भी हिंसा की ट्रेनिंग यहीं से मिली. नाथूराम और उसका दोस्त आप्टे इस दल का एक अख़बार भी निकालते थे. और दोनों गांधी को हिंदू विरोधी मानते थे और बेहद नापसंद करते थे.

क्यों की गांधी की हत्या?
नाथूराम परिवार बसाने से हमेशा इंकार करता था और जब उसकी शादी के रिश्ते आते तो उन्हें नकार देता था. नाथूराम हमेशा ही आदमियों के इर्द-गिर्द रहता था. दरअसल नाथूराम को कुछ लोगों ने संत जैसा होने का भ्रम दिला रखा था, इसलिए वह कुछ हद तक औरतों से भी नफरत करने लगा था.

इसी बीच नाथूराम और आप्टे मिलकर अपनी पार्टी का जो अख़बार निकाला करते थे, उसपर संकट के बादल मंडराने लगे क्योंकि इंवेस्टर्स पैसा देने से मना कर रहे थे. इसी बीच आप्टे ने नाथूराम को उसका पुराना लक्ष्य याद दिलाया, ‘चलो गांधी को मारते हैं’.

इसके आगे जो भी हुआ, भारत की स्वतंत्रता के बाद के इतिहास के सबसे काले अध्यायों में से एक है. गांधी की हत्या की घटना पर ‘लेट्स किल गांधी’ किताब लिखने वाले उनके परपोते तुषार गांधी किताब के चैप्टर ‘हत्यारे’ की शुरुआत में हत्यारों का परिचय देते हुए लिखते हैं –

‘सभी लोग जो गांधी की हत्या में शामिल थे, स्वभाव में बहुत अलग-अलग थे. पर उन सबके अंदर एक बात बिल्कुल एक जैसी थी. सारे ही धर्मांध थे. एक औरतों से नफरत करने वाला रोगी (नाथूराम गोडसे), एक जिंदादिल पर व्याभिचारी (नारायण दत्तात्रेय आप्टे), एक अनाथ फुटपाथ पर रहने वाला बदमाश लड़का जिसने कट्टर बनकर खुद को बड़ा आदमी बनाना चाहा, एक धूर्त हथियारों का व्यापारी (दंडवते) और उसका नौकर, एक बेघर शरणार्थी जो बदला लेना चाहता था (मदनलाल पाहवा), एक भाई जो अपने भाई को हीरो की तरह मानकर पूजता था (गोपाल गोडसे) और एक डॉक्टर जिसका बचाने से ज्यादा मारने में विश्वास था (डॉ. दत्तात्रेय सदाशिव परचुरे). इनका हथियार था एक बंदूक. जो कि गांधी के हत्यारे के हाथ में पहुंचने से पहले तीन महाद्वीपों में घूम चुकी थी.’

नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी (फाइल फोटो)

9 एमएम की बरेटा पिस्टल की कहानी, जिससे महात्मा गांधी की हत्या हुई
एक ब्रिटिश आर्मी के भारतीय लेफ्टिनेंट कर्नल वीवी जोशी के हाथों यह पिस्टल मुसोलिनी की सेना के एक अफसर के आत्मसमर्पण करने के बाद उससे छीनकर लाई गई थी. बाद में जोशी ग्वालियर के महाराजा जयाजीराव सिंधिया की मिलिट्री में ऑफिसर हो गए.

वहां से ये पिस्तौल जगदीश प्रसाद गोयल के पास कैसे पहुंची? ये रहस्य है. पर गोयल ने इसे दंडवते को बेचा, जिसने नाथूराम गोडसे के लिए इसे खरीदा. इसके बाद महात्मा गांधी की हत्या से ठीक दो दिन पहले दंडवते ने भरी हुई पिस्तौल और साथ में सात कारतूस 28 जनवरी की शाम नाथूराम गोडसे को एक होम्योपैथी के डॉक्टर परचुरे के घर सौंपे.