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साग-पात की चटनी

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विभिन्न प्रकार के साग-पात की चटनियों के भी चटखारे लिये जा सकते हैं. ये साग-पात अक्सर मौसमों के बहाने हमारी मंडियों में चले आते हैं और फिर अपनी खुशबू से हमारे रसोईघर को महका देते हैं. इस बार के जायके में कुछ साग-पात और उनकी चटनी के बारे में बता रहे हैं व्यंजनों के माहिर…

हमारे देश की अद्भुत विविधता को हमारा खान-पान और ‘स्थानीय’ (प्रादेशिक) जायके जिस तरह प्रतिबिंबित करते हैं, उसकी मिसाल ढूंढ पाना कठिन है. दिलचस्प बात यह है कि जहां भाषा-बोली और पहनावा कभी-कभार अलग पहचान या विवाद को जन्म दे देते हैं, वहां ‘पराये’ व्यंजन को अपनाने में हम देर नहीं लगाते.

आप यह सवाल उठा सकते हैं कि शाकाहारियों और मांसाहारियों के बीच की खाई कम गहरी और खतरनाक नहीं तथा जिन जानवरों का मांस खाया जाता है, उनका वर्गीकरण भी कट्टरपंथी वर्जित तथा स्वीकृत में करते हैं. पवित्र तथा प्रदूषित पशुओं की प्रजाति भक्ष्य-अभक्ष्य के रूप में निर्धारित की जाति है. यह उलझी बहस फिर कभी.

यह वर्ष राष्ट्रपिता बापू के जन्म की 150वीं जयंती का है. इस मौके पर यह रेखांकित करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि क्यों वह शाकाहार का हठ पालते थे. संक्षेप में, साझा रसोई में एक साथ बैठ कर खानेवाले सभी लोग निःसंकोच भाव से सब्जियां खा सकते हैं, मांसाहारी भी.

गांधी जी अपने आश्रमों में, चाहे वह दक्षिण अफ्रीका हो या फिर चंपारण का भितरवा या अहमदाबाद के निकट साबरमती या वर्धा में सेवाग्राम, आसानी से सुलभ, किफायती सामग्री को रोजमर्रा के खाने में शामिल करने की कोशिश करते रहते थे. उनके निजी सचिव महादेव देसाई के अभिन्न मित्र नरहरि देसाई की पत्नी मणिबेन ने उनके साथ बिताये अपने चंपारण प्रवास के संस्मरणों में इस बात का उल्लेख किया है कि कैसे उन दिनों बापू खाने का रस लेते थे और रोजाना ताजी चटनी पिसवाते थे.

कुछ समय पहले तक पुदीने और धनिये की पत्तियां कोई खरीदता नहीं था- दुकानदारों से खुद ही ग्राहकों को छोटी या बड़ी गड्डी मुफ्त में मिल जाती थी. देहात में तो हर छप्परवाले घर के आंगन और झोंपड़ियों के सामने या पिछवाड़े तरह-तरह के मौसमी साग की पत्तियां हरियाली बिखेरती थीं.

खेतों की मेड़ों या नमी वाली जगह उगनेवाली हरी पत्तियों को तलाशना कठिन नहीं था और यह मुंह का जायका बदलने के साथ बदलते मौसम के माफिक प्रभाव के कारण मुफीद समझी जाती थीं. जायके, तासीर और किफायत के साथ कुदरती गुणवत्ता का संयोग रोजमर्रा के खाने में अनायास होता था.

ये तमाम बातें इस घड़ी हमें इसलिए याद आ रही हैं कि हाल ही में हैदराबाद के दौरे से लौटे एक मित्र ने हमें जोंगुरा के अचार की एक शीशी उपहार में दी.

इसी बहाने हम अपने पाठकों का ध्यान इस ओर दिलाना चाहते हैं कि कुछ घास-फूस सरीखी पत्तियां ऐसी हैं, जो अपने विशिष्ट स्वाद के कारण खटास-तीखेपन की वजह से अखिल भारतीय लोकप्रियता हासिल कर चुकी हैं. जोंगुरा इनमें प्रमुख है. महाराष्ट्र में यह पत्ती ‘अंबाडी’ कहलाती है, तो असम में ‘टेंगा माथा’. झारखंड में कुंद्रुम, जिसे अंग्रेजी में ‘रोसेल’ नाम से जाना जाता है, की सूखी पत्तियों का चूर्ण चाव से खाया जाता है. तटवर्ती ओड़िशा निवासी भी इससे अपरिचित नहीं.

प्रयोगशाला में शोध करनेवालों ने इस बात की पुष्टि की है कि जोंगुरा में अनेक पौष्टिक तत्व मौजूद हैं (सूक्ष्म मात्रा में खनिज सरीखे), जो सेहत के लिए फायदेमंद हैं.

इसका सबसे अधिक चलन आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना में है, पर नामभेद के साथ इसके साम्राज्य की सरहद कर्नाटक और महाराष्ट्र से लेकर झारखंड, असम तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों तक पहुंचती है. यह गरीबपरवर जंगली घास चटनी या चटनीनुमा अचार के रूप में खायी-खिलायी जाती है और इसे सिर्फ नमक और हरी मिर्च की ही दरकार होती है. संसाधनहीन किसान-मजदूर रागी के मुद्दे (उबले लड्डू), ज्वार की भाखरी के साथ इसे अपनी मित्र सब्जी की तरह इस्तेमाल करते हैं.

साधन-संपन्न लोग जोंगुरा का उपयोग दूसरी सब्जियों, दाल तथा सामिष व्यंजनों के साथ जुगलबंदी के तौर पर करते हैं. जोंगुरा का मजा कुछ-कुछ पुदीने वाले साग सरीखा होता है, तो ‘पप्पू’ (दाल) अवध के सगपैता की याद अनायास दिलाती है.

रोचक तथ्य

कुछ घास-फूस सरीखी पत्तियां ऐसी हैं, जो अपने विशिष्ठ स्वाद के कारण खटास-तीखेपन की वजह से अखिल भारतीय लोकप्रियता हासिल कर चुकी हैं. जोंगुरा इनमें प्रमुख है.

महाराष्ट्र में जोंगुरा की पत्ती को ‘अंबाडी’ कहते हैं, तो असम में इसे ‘टेंगा माथा’ कहते हैं.झारखंड में कुंद्रुम, जिसे अंग्रेजी में ‘रोसेल’ कहा जाता है, की सूखी पत्तियों का चूर्ण चाव से खाया जाता है. तटवर्ती ओडिशा निवासी भी इससे परिचित हैं.