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प्रियंका गांधी को UP में सत्ता वापिसी के लिए करना होगा इन 5 चुनौतियों का सामना…

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ढाई दशक से ज्यादा बीत चुके हैं कांग्रेस को उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर हुए। पार्टी फिर से यूपी में राज करना चाहती है। इसके लिए कांग्रेस को जमीनी स्तर (ग्रास रूट) पर मजबूत करने का अभियान शुरू किया गया है। पार्टी एक बार फिर से पंचायत स्तर तक अपना कॉडर खड़ा करने की मुहिम में जुटी है। इसकी जिम्मेदारी खुद पार्टी की यूपी प्रभारी महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने संभाल रखी है।

संगठन को मजबूत करने में जुटी प्रियंका
प्रियंका राज्य में कांग्रेस संगठन को मजबूत करने की कोशिश में जुटी हैं। उन्होंने पहले तो पार्टी में जमे-जमाए क्षत्रप बन चुके कुछ नेताओं को हाशिए पर डाला और अजय कुमार लल्लू जैसे ऐसे व्यक्ति को राज्य कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया, जिसका इतिहास ही सड़कों पर धरना-प्रदर्शन करने का रहा। शायद प्रियंका के मन में यह बात कहीं घर कर गई है कि लक झक सफेद कुर्ता-पजामा वाले नेताओं का संघर्ष का माद्दा खत्म हो चुका है, जिसके चलते बीते ढाई दशक से पार्टी गर्त में जा चुकी है।

26 जनवरी को की थी वीडियो कॉन्फ्रेंस
26 जनवरी को गणतंत्र दिवस (Republic Day) के मौके पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए अमेठी में एक सभा की। उन्हें सुनने के लिए बड़ी संख्या में महिलाएं आईं। प्रियंका का यही एक सबसे अहम सकारात्मक पहलू है। ग्रामीण महिलाओं में वह बहुत पसंद की जाती हैं। महिलाएं उनमें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की प्रतिछाया देखती हैं। लेकिन पूर्व की तरह अगर प्रियंका फिर अमेठी और रायबरेली तक ही सीमित रहती हैं और उसी को पूरा उत्तर प्रदेश माने बैठी रहीं तो राज्य में कांग्रेस का उद्धार नहीं हो सकता। उन्हें उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए सियासी जमीन तैयार करना है तो तमाम चुनौतियों से पहले निपटना होगा।

1. राज्य में अप्रैल में होने वाला पंचायत चुनाव है। पार्टी का अभी तक पंचायत क्या जिला स्तर पर भी ठीक से संगठन नहीं है। ऐसे में पंचायत चुनावों में उसका प्रदर्शन कैसा रहेगा, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। मतदाता सूची बनवाने, उसमें नाम जुड़वाने का काम स्थानीय कार्यकर्ता अथवा समर्थक करते-करवाते हैं। बूथ तक लोगों को ले जाने और अपने पक्ष में वोट कराने के लिए कर्मठ कार्यकर्ताओं की जरूरत होती है। पार्टी को बस्ता संभालने के लिए कार्यकर्ता कई जगह नहीं मिलते। पंचायत चुनावों से पहले ऐसा कतई नहीं दिखता कि पार्टी का संगठन पूरी तरह खड़ा हो सकेगा।

2. निचले स्तर के चुनाव भी उसी शिद्दत और उत्साह से लड़ने की है, जैसा विधानसभा और लोकसभा चुनाव लड़े जाते हैं। जैसा कि भाजपा करती है। नगर निगम तक के चुनाव में पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष ही नहीं, बतौर पार्टी कार्यकर्ता और चुनाव प्रचारक देश का गृहमंत्री-प्रधानमंत्री तक अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने हैदराबाद पहुंच जाते हैं। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को इससे सीख लेनी चाहिए। कोई चुनाव छोटा या बड़ा नहीं होता, वह सिर्फ जीतने के लिए लड़ा जाता है। कांग्रेस को अपने भीतर ऊपर से लेकर नीचे तक न केवल यह संदेश देना होगा, बल्कि शीर्ष नेताओं को खुद भी इस पर अमल करना होगा। इसके साथ ही संगठन के अहम पद ऐसे लोगों को दिए जाएं, जो पार्टी की रीतियों-नीतियों को जानते-समझते हों। दूसरे दलों से आए लोगों को नेतृत्व देने से पार्टी का निष्ठावान कार्यकर्ता-नेता न केवल आहत होता, बल्कि धीरे-धीरे उसका जुड़ाव भी खत्म होता चला जाता है।

3. कार्यक्रमों की अनवरता बनाए रखने और उसकी मॉनीटरिंग की है। प्रियंका ने राज्य में संगठन को पूरी तरह खड़ा करने के लिए दिसंबर 2020 तक का वक्त तय किया था, लेकिन बीच में कोरोना महामारी और लॉकडाउन के चलते उनका सारा कार्यक्रम ट्वीटर और फेसबुक तक ही सीमित रह गया। प्रवासी मजदूरों को लेकर उन्होंने जिस तरह से अपनी चिंताएं व्यक्त की और सत्ताधारी दल पर हमलावर रहीं, क्या उस तरह अमल करवा पाईं। अगर उनकी वे चिंताएं जमीनी स्तर पर वास्तविक स्वरूप ले पाई होतीं तो उपचुनाव में पार्टी प्रत्याशियों की जमानत जब्त नहीं होती। पार्टी को एक के बाद एक कार्यक्रम देते रहना होगा, ताकि संगठन सक्रिय रहे और कार्यकर्ताओं का हौसला बना रहे।

4. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस संगठन कई सालों से निष्क्रिय पड़ा है। कई जिला और शहर अध्यक्ष तो डेढ़-दो दशक से पद लिए बैठे रहे, काम के नाम पर कभी एक धरना-प्रदर्शन तक नहीं किया। वर्षों तक कई ने अपनी कार्यकारिणी नहीं घोषित की और अकेले संगठन चलाते रहे। परिणाम आम जनता के बीच कांग्रेस लगभग खत्म सी हो चुकी है। लंबे समय से सत्ता में नहीं होने से कांग्रेसी भी खुद को अब कांग्रेसी नहीं कहते। चुनाव दर चुनाव हार ने कार्यकर्ताओं में हताशा भर दी है। कुछ घर बैठ गए या फिर दूसरी पार्टी में अपने लिए ठिकाना ढूढ़ लिया। जनाधार इतना खिसक चुका है कि विधानसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन करके भी उसका उद्धार नहीं हो पाया। इससे उबरने को ठोस रणनीति के साथ आगे बढ़ना होगा।

5. राज्य में पार्टी नेताओं की आपसी खींचतान और गुटबाजी को खत्म करने की है। राज्य कांग्रेस में वरिष्ठता के नाम पर तमाम नेता लंबे समय से केवल पदों पर बैठे रहे। दूसरो को काटने में अपनी पूरी ऊर्जा खपाते रहे। विधायक का टिकट इन्हीं कथित बड़े नेताओं और उनके रिश्तेदारों को चाहिए। एमएलसी भी वही बनेंगे। लोकसभा चुनाव भी वही लड़ेंगे, हार गए तो राज्यसभा में भी वही जाएंगे। नहीं कोई मिला तो बाहर से आयातित नेताओं को राज्यसभा-विधान परिषद भेज देती है। इससे युवा नेताओं और पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ताओं का हक मरता है। पार्टी में दूसरी पीढ़ी के नेताओं को भी आगे लाने का मौका देना होगा। प्रियंका के लिए यह सबसे मुश्किल टास्क है।

नाराज हैं कुछ वरिष्ठ नेता
कुछ वरिष्ठ नेता उनसे इसी बात से नाराज हैं कि नए संगठन में उन्हें हाशिए पर डाल दिया गया है और उनकी कहीं पूछ नहीं हो रही है। एक वरिष्ठ कांग्रेसी का कहना है कि उन्हें पद और टिकट की लालसा नहीं, लेकिन बीस-तीस साल जो पार्टी को दिया, उसके लिए सम्मान के तो हकदार हैं ही। वर्तमान नेतृत्व जिन लोगों को संगठन का जिम्मा सौंप रही है, वे वरिष्ठ नेताओं से मिलना-जुलना, मशविरा करना तो दूर, किसी कार्यक्रम में पहुंचने पर सम्मानजनक जगह भी नहीं देते बैठने को। इसके चलते तमाम नेता, कार्यकर्ता अपने घरों में बैठते जा रहे हैं।

शुरु हुआ संगठनात्मक बदलाव
उत्तर प्रदेश का प्रभारी महासचिव बनाए जाने के बाद जबसे प्रियंका ने संगठनात्मक बदलाव शुरू किया है, उससे पार्टी के भीतर नाराजगी बढ़ती जा रही है। कई वरिष्ठ नेता इस बात से नाराज हैं कि जेएनयू छाप युवाओं को आगे किया जा रहा है, जो वर्षों से पार्टी के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं-नेताओं की अनदेखी कर रहे हैं। नियुक्तियों में न उम्र का ध्यान रखा जा रहा है और अनुभव का। जिस युवा की आयु एनएसयूआई और युवा कांग्रेस में काम करने की है, उसे कांग्रेस संगठन में अहम पद दे दिए जा रहे हैं। ऐसे लोगों को संगठन की जमीनी हकीकत का पता नहीं होता और न ही उनमें लोगों को जोड़ने की क्षमता होती है।

नेताओं पर भारी पड़ा ये कदम
यही कारण है कि आज पार्टी के कार्यक्रमों में हजार-दो हजार से ज्यादा की भीड़ जुटाना नेताओं को भारी पड़ रहा है। जिला स्तर की नियुक्तियां हों या प्रकोष्ठों की, अब जिला अध्यक्ष और प्रदेश अध्यक्ष की बजाए दिल्ली से हो रही हैं। इसके चलते कोई किसी की सुन ही नहीं रहा है, क्योंकि उसका आका दिल्ली में बैठा है। इन चुनौतियों के बाद भी कुछ सकारात्मक बातें हैं, जो कांग्रेस को उबारने में प्रियंका के लिए मददगार बन सकती हैं। मसलन, उनका न केवल नाक-नक्श पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मेल खाता है, बल्कि लोगों से सहज मिलना, संवाद करना और अपना बना लेने की उनकी खूबी, उन्हें आम लोगों में लोकप्रिय बनाती है।

प्रियंका को है इसकी जरूरत
यूपी की सियासत को करीब से देख रहे एक वरिष्ठ पत्रकार का कहना है कि प्रियंका में मुद्दों को पकडऩे और उस पर संयमित प्रतिक्रिया देना बखूबी आता है। अब जब वह सक्रिय राजनीति में आ ही चुकी हैं तो उन्हें खुल कर सियासत करनी चाहिए। लेकिन जमीनी मुद्दों की पहचान करना जरूरी है। लोगों की तकलीफें क्या हैं, यह जाने बगैर हवा-हवाई बातों से काम नहीं चलने वाला है। इसलिए जिला और गांवों स्तर तक यात्राएं, रैली-सभाएं कर आम लोगों से जुडऩे की कोशिश करनी होगी।

प्रियंका हैं कांग्रेस का ट्रंप कार्ड
प्रियंका गांधी को पिछले लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पार्टी ने अपने ट्रंप कार्ड के तौर पर राजनीति की मुख्य धारा में उतारा था। माना जा रहा था कि वह पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश में गेम चेंजर साबित होंगी, लेकिन वह खुद चुनाव नहीं लड़ीं। उन्हें उस वक्त पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी महासचिव बनाया गया था। प्रत्याशी चयन से लेकर चुनावी रणनीति बनाने तक की जिम्मेदारी उन्हें दी गई थी, परंतु भाई राहुल गांधी और मां सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्रों तक ही उन्होंने खुद को सीमित रख कर चुनाव प्रचार किया। इसके बाद भी राहुल गांधी अमेठी से चुनाव हार गए।

चुनौतियों को करना है पार
प्रियंका ऐसे वक्त में सियासत में आई हैं, जब देश में मोदी लहर है। यह बात उनके लिए चुनौती भी है और उनकी राह भी आसान करती है। क्योंकि मोदी दूसरी बार सत्ता में हैं और अब पहले जैसे हालात नहीं हैं। यह भी अब छिपी बात नहीं है कि कमजोर और बिखरा हुआ विपक्ष ही सत्ता दल की ताकत बना हुआ है।