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सोनिया गांधी और राहुल गांधी के बीच गहराता कांग्रेस का संकट…

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तीसरी पीढ़ी के कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद ने हे हाउस से 2015 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘द अदर साइड ऑफ द माउंटेन’ में नरमी के साथ पार्टी के उन सहयोगियों को निशाने पर लिया था जिन्होंने पाला बदल लिया था.

खुर्शीद ने अपनी पुस्तक में सर थॉमस मूर के रिचर्ड रोपर पर की गई एक दिलचस्प प्रतिक्रिया का जिक्र किया था. रॉबर्ट बोल्ट के नाटक, ‘मैन फॉर आल सीजंस’ के मुताबिक थॉमस मूर पर चलाए जा रहे राजद्रोह के मुक़दमे में रिचर्ड रोपर को वेल्स का अटॉर्नी जेनरल नियुक्त किया गया था. मूर कहते हैं, “वेल्स के लिए? क्यों रिचर्ड दुनिया के लिए आत्मा देने वाले शख़्स को कोई मुनाफ़ा नहीं हो रहा है…लेकिन वेल्स के लिए?”

चार सालों के बाद, खुर्शीद खुद असंतुष्ट नेता की तरह बर्ताव कर रहे हैं, बयान दे रहे हैं. उनका यह रूप तब सामने आया है जब कांग्रेस महराष्ट्र और हरियाणा के चुनावी मैदान में है.

ऐसे में, राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद अचानक छोड़ने को लेकर किया जा रहा विलाप, ग़लत समय में सामने आया है और यह शरारत भरा लग रहा है. खुर्शीद का व्यवहार, गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान मणिशंकर अय्यर के नासमझी भरे बयान से कहीं ज़्यादा कुटिलता भरा जान पड़ रहा है.

अगर खुर्शीद और दूसरे असंतुष्ट नेता पार्टी में किसी बदलाव को लेकर वाक़ई गंभीर हैं तो उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्यों में से 15 प्रतिशत लोगों को एकजुट करना चाहिए ताकि सोनिया गांधी को नेतृत्व के मुद्दे पर पार्टी का सत्र बुलाने के लिए बाध्य किया जाता. 1993-95 के दौर में अर्जुन सिंह ने पीवी नरसिम्हाराव के समय में यही करने की कोशिश की थी.

राहुल के पास कोई ज़िम्मेदारी नहीं

मौजूदा चुनावी परिदृश्य से राहुल गांधी ग़ायब हैं और कांग्रेस इसका कोई स्पष्टीकरण पेश नहीं कर पाई है. वायनाड से संसद में प्रतिनिधित्व करने के सिवा राहुल गांधी के पास आधिकारिक तौर पर फ़िलहाल पार्टी में कोई पद नहीं है.

हो सकता है कि चुनाव से दूर रहने के लिए यह राहुल गांधी की सोची समझी रणनीति हो. राहुल थोड़े अपरंपरागत राजनीतिज्ञ हैं और कुछ मौकों पर बेहद स्पष्टता से बयान देते आए हैं. हो सकता है उनका अपना आंकलन ये रहा हो, कि उनकी मौजूदगी से चुनाव में कोई फ़ायदा नहीं होने वाला है या फिर आशंका के मुताबिक ही कांग्रेस के कमज़ोर प्रदर्शन के बाद, उनकी ग़ैरमौजूदगी को बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके.

राहुल की शंकाएं निराधार नहीं हैं. 2019 के आम चुनाव में हार के बाद, कई कांग्रेसी नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि राहुल के आक्रामक बयान ‘चौकीदार चोर है’ और रफ़ाल का मुद्दा उठाने से पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा.

सैद्धांतिक तौर पर कहा जाए, तो यह समझना ज़रूरी है कि नेहरू-गांधी परिवार के किसी सदस्य की विफलता का पहले कोई उदाहरण नहीं रहा है. हर तरह का कांग्रेसी गांधी परिवार के सदस्यों को अपना निर्विवाद नेता मानता है और इसके बदले में चुनावी कामयाबी और सत्ता की उम्मीद करता है. जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी, राजीव और सोनिया गांधी (1998 से 2017 तक के अवतार) तक नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य ना तो नाकाम रहा और ना ही अचानक से राजनीति से दूर हुआ.

इसके चलते कांग्रेसी नेता आंखें मूंद कर परिवार के सदस्यों को फॉलो करते आए और उनसे अलग कुछ देखना नहीं चाहा. ऐसे में राहुल गांधी और अब प्रियंका गांधी के सामने, भव्यता के इस भ्रमजाल के साथ रहने और कांग्रेसियों के राजनीतिक प्रवृति को सही साबित करने की चुनौती है.

एक और बात है, राहुल गांधी का इस्तीफ़ा, पार्टी और नेहरू गांधी परिवार के बीच बने सुंतलन की स्थिति को भी तोड़ने की कोशिश है. यह एक तरह से परिवार के बाहर के नेताओं पर बेहतर करने और सामने आकर नेतृत्व करने के लिए भी दबाव डालता है. यह वह पहलू है जिसे ना तो पार्टी और ना ही पार्टी के नेता अब तक स्वीकार कर पाए हैं.

उदाहरण के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया का उदाहरण ही देखें, वे अपनी वंशावली के चलते खुद को महान मराठा के तौर पर पेश करते आए हैं लेकिन महाराष्ट्र और ख़ासकर पश्चिमी महाराष्ट्र में उनका योगदान और उनकी मौजूदगी नगण्य ही है. एआईसीसी स्क्रीनिंग कमेटी के प्रमुख के तौर पर सिंधिया ने कई चूकों को छिपाया है. केवल जालेगांव ज़िले को ही देखें तो कांग्रेस ने सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) को 10 सीटें दे दी हैं, जबकि यहां कांग्रेस सात और एनसीपी चार सीटों पर चुनाव लड़ती रही हैं. कांग्रेस ने अपने दमदार और जीतने वाले उम्मीदवारों की उपेक्षा क्यों की, इसका कोई ठोस जवाब नहीं है.

जोड़ी के तौर पर कामयाब

इसके अलावा, यह भी याद रखे जाने की ज़रूरत है कि कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों के एक जोड़ीदार के तौर पर काम करने का लंबा इतिहास रहा है. तालमेल बनाकर काम करने और रफ़्तार से काम करने के लिए ज़रूरी है कि नजदीकी लोगों की समीक्षा जरूरी होती है.

जब इंदिरा गांधी ने सत्ता संभाली तब पार्टी के पुराने वफ़ादारों और खुद को नेहरू का करीबी बताने वालों को पार्टी से बाहर जाना पड़ा था. अगर थोड़े समय के लिए महासचिव का पद छोड़ दें तो संजय गांधी (1974-80) भी पार्टी में किसी आधिकारिक पद पर नहीं रहे लेकिन कई संस्थागत और प्रशासनिक मामलों में उनकी इंदिरा गांधी जितनी ही चलती थी.

जून, 1980 में हवाई दुर्घटना में हुई उनकी मौत से कुछ सप्ताह पहले ही उनके सहयोगी रहे रामचंद्र रथ उन्हें पार्टी अध्यक्ष के तौर पर देख रहे थे. रथ उस वक्त कहा करते थे, “सुभाष चंद्र बोस और जवाहर लाल नेहरू बेहद कम उम्र में कांग्रेस अध्यक्ष बन गए थे. ऐसे में अगर संजय गांधी पार्टी अध्यक्ष बनते हैं तो पूरी तरह से लोकतांत्रिक ही होगा. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है.”

संजय गांधी के बड़े भाई राजीव गांधी 1983 में कांग्रेस महासचिव बने, तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं. कांग्रेस मुख्यालय 24, अकबर रोड में उन्हें इंदिरा गांधी की बगल वाला कमरा आवंटित किया गया था. राजीव जो कहा करते थे वह सबसे महत्वपूर्ण होता था लेकिन संजय गांधी के नजदीक रहने वाले लोग कहीं नजर नहीं आ रहे थे. इसी तरह राजीव गांधी के समय में महत्वपूर्ण माने जाने वाले कई लोग सोनिया गांधी के समय में नजर नहीं आए.

सोनिया गांधी का राहुल गांधी के साथ (2006 से 2014 तक-जब वे कांग्रेस महासचिव के तौर पर कार्यरत थे) कामकाजी रिश्ते के दौरान यह स्पष्ट दिखा था कि टीम राहुल (अजय माकन, आरपीएन सिंह, मिलिंद देवड़ा, सचिन पायलट जैसे युवा नेताओं) से अलग यूपीए सरकार के मंत्रियों को राहुल गांधी से ऊपर जाकर फैसला लेने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता था.

सोनिया गांधी की मुश्किल

हालांकि सोनिया गांधी का अपना आजमाया हुआ तरीका है, ‘ठंडा कर के खाओ’. यह राहुल गांधी के कामकाजी तरीके से एकदम अलग है.

कांग्रेस पार्टी में अबी 150 महत्वपूर्ण नेता है, जो विभिन्न स्तर पर अहम पदों पर काबिज हैं. मौजूदा समय में सोनिया गांधी संतुलन साधने की कोशिश कर रही हैं ताकि सत्ता का हस्तांतरण आसानी से हो जाए. ऐसे में कांग्रेसी नेताओं के बयानबाजी का एक उद्देश्य सोनिया गांधी का ध्यान आकर्षित करने के लिए भी हो सकता है ताकि 150 प्रभावी कांग्रेसी नेताओं- वर्किंग कमेटी, पार्टी मुख्यालय, प्रदेश कांग्रेस प्रमुख, विधानसभा में नेता (विपक्ष) या फिर नजदीकी नेताओं की मंडली में शामिल हो पाएं.

सोनिया गांधी की मुश्किल यह है कि उनकी नजर इस बात पर है कि इतिहास उनका आकलन किस तरह से करेगा? ऐसे में वह नहीं चाहती हैं कि राहुल गांधी की नाकामी का उनके अपने शानदार रिकॉर्ड, 2004 और फिर 2009 में कांग्रेस को सत्ता में लाने पर कोई असर पड़े. इसलिए वह पार्टी अनुशासन का डंडा नहीं चलाना चाहतीं.

वहीं दूसरी ओर, मिलिंद देवड़ा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, संजय निरूपम और टीम राहुल के तमाम दूसरे नेता अब पार्टी गतिविधियों से खुद को कटा हुआ महसूस कर रहे हैं. वे उम्मीद कर रहे थे राहुल गांधी के नेतृत्व में वे खुद तो चमकेंगे ही साथ ही बड़े फ़ैसले लेंगे. लेकिन इसके बजाए, अहमद पटेल, गुलाम नबी आज़ाद, आनंद शर्मा और दूसरे अन्य नेताओं ने वापसी की है. ऐसे में लग रहा है कि थोड़े समय के लिए कांग्रेस के अंदर ये आंतरिक संघर्ष जारी रहेगा.