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क्या है भारत का देशद्रोह कानून? जिसे कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में खत्म करने का किया वादा

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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के लिए घोषणा पत्र जारी कर दिया है. लोकसभा चुनाव 2019 के लिए घोषणा पत्र में सेना का आधुनिकीकरण, राइट टू फ्री हेल्थकेयर, प्रदूषण के मुद्दे पर भी कांग्रेस ने वादा किया है कि वह इस पर काम करेगी. कांग्रेस ने वादा किया है कि अगर उसकी सरकार बनी तो राजद्रोह की धारा को भी खत्म कर दिया जाएगा.

इसके बाद आई बीजेपी की प्रतिक्रिया में कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र को वित्तमंत्री अरुण जेटली ने देश को तोड़ने वाला वादा करार दिया है. अरुण जेटली ने कहा कि कांग्रेस का घोषणा पत्र देश की एकता के लिए किसी बड़े खतरे से कम नहीं है. कांग्रेस ने जो वादे जनता से किए हैं वो कभी पूरे नहीं किए जा सकते.

हालांकि बहुत पहले से ही भारत के राजद्रोह कानून की आलोचना होती रही है. इसका कारण यह है कि ये कानून ना केवल बहुत पुराना है बल्कि इससे अंग्रेज बागी हिंदुस्तानियों को कुचलने का कुचक्र रचते थे. इन तमाम बातों के बीच जानिए, क्या कहता है भारत में देशद्रोह का कानून-

ये है देशद्रोह का कानून

आईपीसी की धारा 124ए के तहत लिखित या मौखिक शब्दों, चिन्हों, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर नफरत फैलाने या असंतोष जाहिर करने पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जा सकता है. इस धारा के तहत केस दर्ज होने पर दोषी को तीन साल से उम्रकैद की सजा हो सकती है. साल 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने भी देशद्रोह की इसी परिभाषा पर हामी भरी. कुछ खास धाराओं के लागू होने पर गुट बनाकर आपस में बात करना भी आपको सरकार के विरोध में खड़ा सकता है और आप संदिग्ध माने जा सकते हैं.

अंग्रेजों ने बनाई थी व्यवस्था

सेडीशन लॉ यानी देशद्रोह कानून भारत में एक औपनिवेशिक व्यवस्था है. साल 1860 में अंग्रेजी हुकूमत ने इस नियम का मसौदा तैयार किया. दस सालों बाद 1870 में इसे भारतीय कानून संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए की शक्ल दी गई. देशद्रोह की ये धारा इसलिए बनाई गई ताकि हुकूमत के खिलाफ जाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जा सके. बागियों को तुरंत जेल में डाला जाने लगा. साल 1898 में लॉर्ड मैकॉले दंड संहिता के तहत देशद्रोह का मतलब था, ऐसा कोई भी काम जिससे सरकार के खिलाफ असंतोष जाहिर होता हो.

हालांकि 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान इस परिभाषा में बदलाव किया गया. अब नए कानून के तहत सिर्फ सरकार के खिलाफ असंतोष जाहिर करने को देशद्रोह नहीं माना जा सकता बल्कि उसी स्थिति में इसे देशद्रोह माना जाएगा जब इस असंतोष में हिंसा भड़काने और कानून व्यवस्था को बिगाड़ने की भी अपील शामिल हो.

इस मामले ने बदला नजरिया
देशद्रोह कानून के मामले में बिहार के केदारनाथ सिंह का मामला काफी अहम रहा. 1962 में बिहार सरकार ने इनपर देशद्रोही भाषण देने के मामले में केस दर्ज किया. इसपर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी. राज्य सरकार मामला लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची, जहां कोर्ट ने कहा कि देशद्रोह के मामले में ऐसे भाषणों पर तभी सजा हो सकती है जब इससे किसी भी तरह की हिंसा हो या असंतोष बढ़े.

बोलने की आजादी का हनन
हाल के दिनों में देशद्रोह के बढ़ते मामलों के बीच इस कानून की फिर से समीक्षा की मांग उठने लगी है. मानवाधिकार पर काम करने वाली संस्थाओं का कहना है कि एक ओर तो संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी है तो दूसरी ओर देशद्रोह का कानून है जो पहली आजादी को रोकता है. सरकार इस कानून की आड़ में अभिव्यक्ति पर रोक लगा रही है. सिर्फ जेएनयू के छात्र ही इस कानून के लपेटे में नहीं, समय-समय पर लोगों पर ये धारा लगती रही है.

जब गांधीजी पर लगा देशद्रोह का आरोप
साल 1870 से लागू इस कानून की सबसे पहली गाज महात्मा गांधी पर गिरी. एक साप्ताहिक मैगजीन में गांधीजी ने यंग इंडिया नामक आर्टिकल लिखा था, जिसे ब्रिटिश हुकूमत ने अपने खिलाफ माना.

2007 में बिनायक सेन पर नक्सल विचारधारा को फैलाने के आरोप में देशद्रोह का मामला दर्ज कर आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जमानत मिल गई.

2010 में अरुंधति रॉय और हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी पर कश्मीर-माओवादियों के पक्ष में एक बयान देने की वजह से देशद्रोह के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था.

2012 में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के समय साइट पर संविधान से जुड़ी तस्वीरें पोस्ट करने की वजह से इसी आरोप में गिरफ्तार में किया गया था, बाद में उनके ऊपर से देशद्रोह का आरोप हटा लिया गया.

2012 में तमिलनाडु सरकार ने तमिलनाडु के कुडनकुलम में परमाणु प्‍लांट का विरोध करने वाले हजारों ग्रामीणों पर देशद्रोह की धाराएं लगाई थीं.

गुजरात में पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग करते हुए हिंसक आंदोलन शुरू करने वाले हार्दिक पटेल को भी अक्टूबर 2015 में गुजरात पुलिस की ओर से देशद्रोह के मामले के तहत गिरफ्तार किया गया था.

देश में हैं कितने मामले
एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2014 में देशद्रोह के 47 मामले दर्ज किए गए जिसमें 72 फीसदी मामले सिर्फ बिहार-झारखंड में दर्ज है. झारखंड में 18 और बिहार में 16 मामलों के अलावा जहां तक अन्य राज्यों की बात है तो केरल में 5 और उड़ीसा-पश्चिम बंगाल में 2-2 मामले दर्ज है. आंध्र प्रदेश, असम, हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ में एक-एक मामला दर्ज हैं.

दुनियाभर के स्टूडेंट्स बोलते रहे हैं
साल 1965 में अमेरिका-वियतनाम के युद्ध के दौरान जब अमेरिका की मिशिगन यूनिवर्सिटी के छात्रों और शिक्षकों ने विश्वविद्यालय कैंपस में लड़ाई के खिलाफ नारे लगाए तो इनके खिलाफ देशद्रोह का मामला तो दूर बल्कि कोई कार्रवाई भी नहीं हुई. फिर 1965 से 1973 के बीच पूरे अमेरिका के विश्वविद्यालयों में वियतनाम युद्ध के खिलाफ विरोध प्रदर्शन होने लगे. इस दौरान पढ़नेवालों ने अमेरिकी झंडे भी जलाए, लेकिन किसी पर देशद्रोह का मुकदमा नहीं किया गया.

ऐसे ही साल 1933 में ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के साथ-साथ कई अन्य विश्वविद्यालय के छात्रसंघों ने जब एक प्रस्ताव पारित कर शपथ ली कि वो किसी भी हाल में अपने देश या उसके राजा के लिए नहीं लड़ेंगे तो इसकी न सिर्फ कड़ी प्रतिक्रिया हुई बल्कि छात्रों को कायर तक कहा गया. इस मामले में भी किसी को देशद्रोह के मामले में गिरफ्तार नहीं किया गया. वहीं चीन की अलग कहानी है. 1989 में चीन के सरकार ने अपने खिलाफ आवाज उठाने वाले छात्रों के आंदोलन को कुचलने के लिए सड़कों पर सेना के टैंक उतार दिए. छात्र राजनैतिक और आर्थिक सुधारों की मांग कर रहे थे, जिसने बाद में जन-आंदोलन का रूप ले लिया. इतिहास में इसे तियानानमेन चौक नरसंहार के तौर पर भी जाना जाता है.