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आखिर इसी वक्त क्यों लिया गया कश्मीर पर बड़ा फ़ैसला?

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आर्टिकल 370 (Article 370) के प्रावधान खत्म कर जम्मू कश्मीर को दो अलग केंद्रशासित प्रदेशों में पुनर्गठित करने का फैसला केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार (Narendra Modi Government) ने इस वक़्त कर विपक्ष को ही नहीं, बल्कि पूरे देश को चौंका दिया. चुनाव हो चुके और भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ भारी बहुमत हासिल कर दोबारा सरकार बनाने में कामयाब हुई. निकट भविष्य में कोई महत्वपूर्ण चुनाव नहीं है और न ही कोई बड़ा राजनीतिक संकट (Political Crisis) सरकार के सामने है. दूसरी तरफ, कश्मीर में पिछले काफी समय से सरकार बर्खास्त है और राष्ट्रपति शासन लागू है. ऐसे में इस वक़्त इस तरह का ऐतिहासिक बड़ा फ़ैसला करने के पीछे क्या कारण रहे? आइए समझें.

राजनीति के जानकार और मीडिया (Media) केंद्र सरकार के इस कदम को ऐतिहासिक के साथ ही मास्टर स्ट्रोक (Master Stroke) करार दे रहा है, तो आखिर इसकी वजह क्या है. देश के अंदरूनी हालात और दुनिया के ताज़ा राजनीतिक परिवेश पर अगर नज़र डाली जाए तो शायद स्थिति स्पष्ट हो सकती है. बिंदुवार जानिए कि कारण रूप में देश और दुनिया के हालात क्या इस सवाल का जवाब देते हैं कि ये फैसला इस वक़्त करने के पीछे क्या कहानी रही.

कमज़ोर विपक्ष और अनुकूल कश्मीर लगातार दूसरी बार भारी बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुई भाजपा और एनडीए के पास यही सबसे अच्छा मौका था कि तमाम ज़रूरी और बड़े फैसले कर लिये जाएं. एक, राहुल गांधी के इस्तीफ़े के बाद कांग्रेस पार्टी अपने सबसे खराब दौर से गुज़र रही है और चुनाव में बुरी तरह धराशायी हुई. कांग्रेस के अलावा भी संसद में कोई विपक्षी दल मज़बूत स्थिति में नहीं है. तो संसद में किसी अधिनियम को पास कराने के लिए सरकार के सामने कोई चुनौती नहीं है.

दूसरी ओर, कश्मीर के हालात पहले की तुलना में ज़्यादा अनुकूल दिख रहे थे. पुलवामा हमले के बाद भारत की एयर स्ट्राइक के बाद से सीमा पार आतंकवाद तकरीबन काबू में होने के दावे किए गए. कश्मीर में सरकार बर्खास्त थी और राष्ट्रपति शासन था यानी एक तरह से केंद्र के पक्ष में माहौल था. ऐसे में बड़े फैसले लेने के लिए इस वक़्त मुफ़ीद हालात दिख ही रहे थे.

अब अगर दुनिया में बनीं स्थितियों पर नज़र डाली जाए तो अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के ज़रिए भारत ने पाकिस्तान पर आतंकवाद को लेकर दबाव बनाने में कामयाबी हासिल की थी. इसके चलते, अमेरिका ने अफ़गानिस्तान में शांति बहाली और अमेरिकी फौजें हटाने के मक़सद से वार्ताएं शुरू करवाईं. अफ़गानिस्तान की वार्ता को अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ रिश्तों में इस समय प्राथमिकता पर रखा हुआ था.

दूसरी ओर, अफ़गान मामले में पाकिस्तान चाहता था कि वह विश्व मंच पर कश्मीर मुद्दे को उठाए और इसी कोशिश में ट्रंप ने मध्यस्थता करने की इच्छा ज़ाहिर की भी लेकिन भारत ने अपना रुख साफ कर दिया कि कश्मीर द्विपक्षीय मामला है और इस पर किसी का दखल नहीं बर्दाश्त होगा. वहीं, भारत ने अफ़गान वार्ता के मामले से खुद को अलग कर लिया. कुल मिलाकर अमेरिका ने अफ़गान वार्ता को प्राथमिकता पर रखते हुए पाकिस्तान को सिर्फ वहीं केंद्रित रहने को कहा.

पाकिस्तान का खराब हाल
आर्थिक संकट से जूझ रहे पाकिस्तान पर अमेरिका का दबाव भी रहा इसलिए पाकिस्तान से किसी किस्म की बड़ी या गंभीर प्रतिक्रिया की आशंका भी कम ही थी. डॉलर का मूल्य 160 पाकिस्तानी रुपये तक पहुंच गया और महंगाई की दर 11 फीसदी तक बढ़ गई. वहीं, आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तानी सरकार पूरी तरह से घिर गई और पाक पीएम इमरान खान को पाक की ज़मीन पर पनप रहे आतंकियों के खिलाफ सख़्त कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ा. ऐसे में, भारत के पास पूरा मौका था कि वह पाकिस्तान की खराब स्थिति का फायदा उठाकर उस पर और दबाव बनाने की रणनीति अपनाए.

मुंह पर कश्मीर मुद्दे को भारत और पाकिस्तान का आपसी मामला बताता रहा चीन हमेशा से पीठ पीछे पाकिस्तान का ही साथ देता रहा है और सीमाओं को लेकर भी भारत पर अन्याय करने की फिराक में रहा है. कभी लद्दाख तो कभी अरुणाचल में भारतीय सीमाओं या क्षेत्रों को अपने कब्ज़े में लेने का मंसूबा रखने वाले चीन के लिए भी एक संदेश देने का मौका था कि भारत अपने संविधान और संप्रभुता को केंद्र में रखकर आक्रामक फैसले लेने की स्थिति में है. पाकिस्तान पर चौतरफा दबाव बन जाने के बाद चीन भी उसका साथ देने की स्थिति में खुलकर नहीं आ सकता था, यह स्थिति भी भारत के पक्ष में थी.

इन तमाम कारणों का विश्लेषण करती इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत सरकार के लिए यही सबसे मुफ़ीद समय था कि वह कश्मीर के विशेष राज्य के दर्जे को खत्म कर उसका पुनर्गठन करे और देश के संपूर्ण एकीकरण की तरफ कदम बढ़ाए.